तीन तलाक पर सुप्रीमकोर्ट का निर्णय, मुस्लिम महिलाओं के लिए स्वाभिमान पूर्ण एवं समानता के एक नए युग की शुरुआत
अगस्त 21, 2017 को सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की बेंच ने 395 पेज में समान लिंग समान न्याय पर आधारितए ऐतिहासिक निर्णय करते हुए मुस्लिम समाज में सामाजिक व कानूनी तौर पर 1400 वर्ष पुरानी सेक्शन 2 शरीयत एक्ट में व्याप्त तलाक़ की प्रक्रिया को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
पांच में से तीन न्यायाधीशों ने माना कि तलाक़ की प्रक्रिया सविंधान के आर्टिकल 14 (बराबरी का अधिकार) के असंगत व प्रतिकूल है। एक जज ने यह तक कहा कि प्रक्रिया एकदम शरीया कानून के विरूद्ध है, इस्लाम का हिस्सा नहीं है और न्याय संगत नहीं है। तीन तलाक़ प्रक्रिया को सविंधान के आर्टिकल 25 का सुरक्षा कवच नहीं प्राप्त हो सकता है जो रिलीजियस प्रैक्टिस को पालन करने का अधिकार सुरक्षित करता है। धारा 25 के तहत धार्मिक परंपराओं को भी संरक्षण प्राप्त नहीं है। इसका सीधा कारण ये है कि इससे नागरिकों की बेहतरी बाधित होती है। धर्म की आजादी भारतीय नागरिकों को है, न कि धार्मिक संप्रदायों को। निश्चित तौर पर ऐसी आजादी एआईएमपीएलबी या जमायत.उलेमा-ए-हिंद या इनके जैसे संगठनों के लिए नहीं है। धारा 14 जो समानता का अधिकार प्रदान करती है, वो धारा 25 को बेअसर करती है। इसकी वजह ये है कि ट्रिपल तलाक एक मुस्लिम महिला को कानून के सामने समान हक से वंचित करती है। संविधान की धारा 15 (1) कहती है कि राज्य “किसी भी नागरिक से धर्मए संप्रदायए जातिए लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता है” । चूंकि ट्रिपल तलाक महिलाओं के खिलाफ है लिहाजा संविधान की धारा 15 (1) का ये सरासर उल्लंघन है। इससे संविधान की धारा 21 जो नागरिकों को जीवन की सुरक्षा और निजी आजादी देती हैए उसका भी उल्लंघन होता है।
इस पीआईएल लाने का श्रेय उत्तराखंड की सायरा बानो 35 वर्षीया एक मुस्लिम महिला को है मुस्लिम कानून में विवाह एक संस्कारिक विवाह रीति न होकर मात्र एक अनुबंध है और विशेष परिस्थितियों में समाप्त किया जा सकता है। ट्रिपल तलाक मौजूदा वक्त में सार्वजनिक नैतिकता के खिलाफ है।
पाकिस्तान समेत करीब 22 मुस्लिम मुल्को में ट्रिपल तलाक पर पहले से ही रोक लगी हुई है।
इस्लाम में तलाक़ पाने के तीन प्रक्रिया है। तलाक़ ऐ अहसान तलाक़ ऐ हसन और तलाक़ ऐ बिद्दत।
तलाक ए बिद्दत, ट्रिपल तलाक के तहत जब एक व्यक्ति अपनी पत्नी को एक बार में तीन तलाक बोल देता है या फोन, मेल, मैसेज या पत्र के जरिए तीन तालक दे देता है तो इसके बाद तुरंत तलाक हो जाता है। इसे निरस्त नहीं किया जा सकता। तलाक-ए-बिद्दत में तीन तलाक को निरस्त किया जाता है। निकाह हलाला यह एक इस्लामी विवाह (निकाह) है जो मुख्य रूप से सुन्नी मुसलमानों के कुछ संप्रदायों द्वारा हिदुस्तान में किया जाता है। जिसमें एक तलाकशुदा महिला किसी और से शादी कर लेती है, उस पुरुष के साथ विवाह की संसिद्धि करती है और तलाक लेती है ताकि उसे अपने पहले पति से पुनर्विवाह करना उचित हो सके। तलाक ए अहसान य तलाक की यह विधि अभी भी कानूनन मान्य है।तलाक -.ए-अहसन मुसलमानों में तलाक की सबसे अधिक मान्य प्रक्रिया है। इसमें कोई भी व्यक्ति अपनी पत्नी को एक बार तलाक देता है लेकिन पत्नी को छोड़ता नहीं है। वह उसके साथ ही रहती है। अगर तीन महीने के अंतराल में दोनों के बीच सुलह नहीं हुई तो तीन महीने की इद्दत अवधि पूरी होने के बाद तलाक पूर्ण माना जायेगा।
तलाक-ए-हसन यानी कोई भी शौहर कुरान के मुताबिक एक-एक माह के अंतराल पर तीन बार तलाक कह कर बीवी से संबंध खत्म कर सकता है। इस प्रक्रिया में तीसरा तलाक़ शब्द अगर न बोलै जाये तो विवाह कायम रहता है।
इस्लाम में पत्नी को तलाक़ देने का कोई अधिकार नहीं है।
तलाक-ए -तफ़वीज़. इस प्रक्रिया में पति पत्नी को या तीसरी पार्टी को तलाक़ देने का अधिकार देता है। यह अधिकार विवाह से पहले या बाद पत्नी को दिया जा सकता है और कानूनन लागु होता है।
कुरान में बताई गई प्रक्रिया के मुताबिक तलाक शब्द हमेशा दो गवाहों के सामने बोला जाना चाहिएद्य इसलिए कुरान ट्रिपल तलाक के मनमाने अभ्यास पर रोक लगाता है और जोर देता है कि यह प्रक्रिया नाराजगी में नहीं कि जानी चाहिए।
DISSOLUTION OF MUSLIM MARRIAGES ACT, 1939, मुस्लिम पर्सनल लॉ के एक छोटे से हिस्से को लेकर बना है जिसमे स्तिर्यो के हकूक के लिए 10 दशाए निर्धारित हुई है हालाँकि मुस्लिम पर्सनल लॉ ब्रिटिश पीरियड के इस लेजिस्लेटिव एक्ट को पूरी तरह से बाधित करता रहा है और वास्तविक तौर पर लागू नहीं के बराबर हैद्य
सरकार ने Women (Protection of Rights on Marriage) Bill, 2017 तलाक़-इ-बिद्दत कानून को असवैधानिक व दंडनीय करार दिया है। साथ ही सरकार ने इस मुद्दे से संलग्न सभी विषयों जैसे निर्वाह भत्ता, बच्चो का पोषण व निगरानी आदि को भी सकारात्मक पहल करते विधिबद्ध करना तय कर लिया है।
इस पुरे विवाद में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की बेहद किरकिरी हुई है क्योंकि AIMPLB ने गलत व असरहीन वक्तव्यों व कार्रवाही से न कि विधान मंडल को अपने सामाजिक व धार्मिक रीत रिवाज ( विवाह शामिल) मौका दिया वर्ना यह भी साबित किया की वर्षों से आने वाले खतरों से जूझना तो दूर उनके पास किसी प्रकार का कोई योजना बोलने तक के लिए नहीं थी। अंत में AIMPLB के वजूद के ऊपर भी सवालिया निशान लग ही गए है।
इस निर्णय ने आने वाली पीढ़ी की उम्मीद व चाहत को स्थापित किया है और अलग थलग मुस्लिम समाज के 50: हिस्से को उसकी सामाजिक व राजनितिक स्थिरता और हालत से अवगत कराया है जो एक नया उभरते भारत के लिए एक शुभ संकेत है।
लेखक परिचय :
लेफ्टिनेंट कर्नल अतुल त्यागी दिल्ली हाई कोर्ट के अधिवक्ता है। श्री त्यागी ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी, यमुना अथॉरिटी, रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन, एजुकेशन इंस्टिट्यूशंस और कहिए जैसे संस्थानों से जुड़े हुए हैं। लेफ्टिनेंट कर्नल अतुल त्यागी सामाजिक व समसायिक विषयों पर अपने लेख के जरिये विचार व्यक्त करते रहते हैं। फिलहाल वो एक लॉ फर्म FAIR LAW PRACTITIONERS का संचालन ग्रेटर नोएडा में कर रहे हैं .