भारतीय संविधान और राज्य व्यवस्था विषय पर राष्ट्र चिंतन की मासिक गोष्ठी का हुआ आयोजन

राष्ट्र चिंतना की नवमी मासिक गोष्ठी एक्सपो मार्ट ग्रेटर नोएडा के मीडिया लाउंज में प्रेसिडेंट बोर्ड रूम में भारतीय संविधान और राज्य व्यवस्था विषय पर आयोजित हुई। विषय परिचय करवाते हुए एमिटी इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी के निदेशक प्रोफेसर विवेक कुमार ने कहा की 26 जनवरी 1950 को डॉ अंबेडकर की अध्यक्षता में 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन तथा 389 महानुभावों के सहयोग से बने संविधान के प्रथम पृष्ठ पर भगवान श्री राम का मनोहारी चित्र अंकित है। अतः इस सर्वरूप से जनहितकारी अवश्यमेव होना चाहिए।

सुप्रसिद्ध इतिहासकार एवं मुख्य वक्ता आदरणीय कृष्णानंद सागर जी ने कहा कि भारतवर्ष विविधताओं से भरा होने के पश्चात भी एक तत्व का भाव धारण किए हुए है। भारतीय चिंतन में धर्म सर्वोपरि है, समय के अनुसार धर्म की व्याख्या बदलता है। युग धर्म शाश्वत धर्म के अनुकूल होना चाहिए। विधान या संविधान शाश्वत धर्म के अनुकूल रहे। प्रांत वाद भाषावाद तथा सांप्रदायिकता का संविधान के दायरे में कोई स्थान नहीं हो। आज के युग में संविधान सुधार करते हुए दृष्टि भारतीय हो, नहीं तो संविधान निर्माता अंबेडकर जी ने भी एक समय कहा था कि मेरा बस चले तो इस संविधान को जला दूं।

उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता अजेय कुमार गुप्ता जी ने कहा के संविधान की संरचना पर निर्भर करता है कि वह कितना सुरक्षित कितना प्रभावी होगा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने ईस्ट इंडिया कंपनी को अपनी विस्तारवादी नीति के शास्त्र के रूप में आगे बढ़ाया। संविधान के निजामी और दीवानी दो हिस्से बने। निर्वाचन में ऐसे नियम निर्वाचन प्रतिनिधि अधिनियम में लाए गए। 1919 में ब्रिटिश भारतीय सरकार अधिनियम आया जिसमें गृह राज्य व्यवस्था को पुनर्जीवित किया गया और वायसराय को ज्यादा अधिकार दिए गए। निर्वाचित प्रतिनिधियों को वायसराय हटा सकते थे। 1927 में साइमन कमीशन लाया गया। 1909 से लेकर 1935 तक तिब्बत, नेपाल, म्यांमार जैसे कई देश बनाकर भारतवर्ष से अलग किए गए। भारतवर्ष के संविधान की प्रस्तावना भी अमेरिका प्रेरित है। समसामयिक विषय यह है कि संविधान के किसी भी प्रारूप का दुरुपयोग ना हो।

अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में प्रोफेसर बलवंत सिंह राजपूत, पूर्व कुलपति कुमाऊं और गढ़वाल विश्वविद्यालय ने कहा की धर्मनिरपेक्ष कुछ हो ही नहीं सकता, उनके विचार में पंथनिरपेक्ष शब्द ज्यादा उचित रहेगा और धर्मनिरपेक्ष 1976 के बाद धर्म का अपमान करने के लिए संविधान में शामिल किया गया। संविधान में जो सेकुलर शब्द जोड़ा गया वह पंथनिरपेक्ष था ना कि धर्मनिरपेक्ष और धर्म कभी भी रिलिजन नहीं होता। उन्होंने उदाहरण देकर समझाया कि 1948 में जब इसराइल बना तो सभी देशों से इजरायली को वहां आमंत्रित किया गया और उन्होंने एक नियम बनाया की हिब्रू भाषा जो भी नागरिक इजराइल में रहे वह 6 महीने में सीख लें अन्यथा इसराइल छोड़ दें, तो इसी आधार पर भारतवर्ष में भी संविधान के निर्माण के समय हिंदी को मातृभाषा घोषित करना चाहिए था और गांधी जी इसके परम समर्थक थे। गोष्ठी के अंत में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि संविधान में अब जो भी सुधार हो तो तथ्यपरक भाव जोड़े जाएं ताकि जनहित सर्वोपरि हो और जो गलत अंश हैं उनको विवेकपूर्ण ढंग से हटाया जाए। गोष्ठी में डॉ नीरज कौशिक, राजेन्द्र सोनी, मेजर निशा, संगीता वर्मा, डॉ निधि, डॉ उमेश, कैप्टेन शशि भूषण, आधिवक्ता मणि मित्तल, गजानन माली, अधिवक्ता सरिता मालिक, ओम प्रकाश चौहान, सरोज तोमर, डॉ अमृता, मेजर सुदर्शन, महेंद्र उपाध्याय, विवेक द्विवेदी, अवधेश गुप्ता, सूबेदार बिजेंद्र, ब्रज भूषण, जुली, विनय, मुकेश, सरोज अरोरा, आर श्रीनिवास, धर्म पाल भाटिया, रजनी, रविन्द्र भाटी, आयुष मंगल, आर पी सिंह, अजय पाल सिंह आदि प्रबुद्धजन उपस्थित थे।

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