पंचायत चुनाव : खौफ का अंत, 25 साल बाद बिकरू में बही लोकतंत्र की बयार
पंचायत चुनावों में पहली बार बिकरु गांव में लोकतंत्र की बयार बहेगी। कुख्यात विकास दुबे के मारे जाने के बाद अब्र यहां प्रत्याशियों के पोस्टर लगे हैं और लोग खुलकर चुनावों की चर्चा कर रहे हैं। इससे पहले विकास दुबे अपने परिवार के लोगों या चहेतों को लड़ाता था और उसका प्रत्याशी निर्विरोध जीतता था।
मतलब प्रधान की घोषणा विकास दुबे ही कर देता था, चुनाव तो खानापूर्ति ही महज होते थे। लेकिन, इस बार 25 साल बाद प्रधान पद के लिए 10 प्रत्याशी मैदान में हैं। डेढ़ हजार आबादी वाली इस पंचायत में गांव में लगे बैनर पोस्टर विकास दुबे की दहशत से आजादी का अहसास दिला रहे हैं। प्रधान पद के लिए चुनाव लड़ रहे रमाशंकर दिवाकर कहते हैं, इससे पइले कभी चुनाव लड़ने की हिम्मत ही नहीं पड़ी। विकास दुबे जिस पर हाथ रख देता था, वहीं प्रधान बन जाता था।
अरुण कुशवाहा बताते हैं, अगर विकास दुबे जिंदा होता तो कोई चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। हमारी पंचायत में चुनाव हमेशा ही निर्विरोध होता था, बस निर्विरोध न लगे तो एक दो को और लड़ा देते थे कि मेसेज न जाए कि लगातार सीट निर्विरोध हो रही है। हकीकत ये थी कि अगर 950 वोट पड़े और एक प्रत्याशी को 900 वोट मिले, बाकी प्रत्याशियों में 50 वोट में बंट गए तो ये निर्विरोध ही हुआ। लोगों में आतंक था कि शिकायत लेकर कहां जाएंगे।
विकास दुबे के घरवाले ही अब तक जीतते थे
विकास दुबे का पंचायत चुनावों पर ही अपना कब्जा रखना चाहता था, उसके भाई की पत्नी अंजलि दुबे निवर्तमान प्रधान थी, उसकी पत्नी ऋचा दुबे जिला पंचायत सदस्य थी। पिछले जिला पंचायत सदस्य के चुनाव में पूरे गांव में सिर्फ एक वोट विरोध में डालने वाले अरुण कुशवाहा कहते हैं, 1995 से विकास दुबे के परिवार के लोग या या उनके समर्थित उम्मीदवार ही प्रधानी जीतते थे। गांव में इस बार के पंचायत चुनावों में सभी की तैयारी दिख रही है। पहली बार जिला पंचायत सदस्य से लेकर क्षेत्र पंचायत सदस्य तक के पोस्टर लग रहे हैं।
कुख्यात विकास दुबे के गांव में प्रधान पद के लिए 10 प्रत्याशी मैदान में, पोस्टर भी लगे
घिमऊ क्षेत्र से जिला पंचायत सदस्य के लिए चुनाव लड़ चुके प्रभाकर अवस्थी पहले की तैयारियों के बारे में बताते हैं, पिछली बार एक प्रत्याशी को विकास दुबे ने फोन करके बोल दिया कि नहीं लड़ना है, तो उन्होंने नाम वापस ले लिया। इस बार के चुनावों में आदमी स्वतंत्र होकर वोट करेगा। विकास दुबे कभी ऐसे चुनाव लड़ा ही नहीं कि हाथ जोड़ कर वोट मांगा हो। उसके यहां तो पुलिसवाले भी बांध के मारे जाते थे।
ग्राम समाज की जमीन पर उनके लोगों का कब्जा था, कोई बोलता ही नहीं था। प्रभाकर आगे बताते हैं, पिछली बार जब उसकी पत्नी ऋचा दुबे जीतीं थीं, 346 बैलट जिन पर प्रिसाइडिंग अफसर के साइन भी नहीं थे, उनके नाम से वोट पड़े थे। काउंटिंग में 120% वोट पड़ गए आखिर कैसे? प्रशासन उसके इशारों पर नाचता था।
हम रात तक मतगणना स्थल पर डटे रहे, लेकिन हमारे पिता जी ने कहा-बेटा जिंदा रहोगे तो फिर चुनाव लड़ पाओगे। हमें तो धमकी नहीं दी कभी, लेकिन हमारे लोगों को धमकाते थे कि बस्ता मत लगाना कभी। जो मेरे समर्थन में आ जाता था उसकी शामत आ जाती थी।