शहर हो गए ख़ाली प्यारे, अब शहर कौन बनाएगा : राजेश मिश्रा
” शहर हो गए ख़ाली”
शहर हो गए ख़ाली प्यारे अब शहर कौन बनाएगा,
सुबह चला और शाम को अब कौन थका आएगा।
सूनी हो गयी सारी सड़के अब रेहड़ी कौन लगाएगा,
अमीरों के रहने को अब कौन गरीब घर बनाएगा।
चाहा बहुत की रुक जाए शहर मे मगर हो न सका,
न निकला घरों से कोई शहरी, हमको रोक न सका।
काम धाम बन्द हुआ तो दूरी बना गए हम सबसे,
मज़दूर मजबूर हो गए कोई बस चल न सका।
हम थे तो शहरी सड़कों पे रौनक होती थी,
हम से ही सुबह और हमसे ही शाम होती थी।
छोटे छोटे गांवो से निकल आये थे कुछ करने को,
गाँव वापसी की साजिशें गांवो मे रोज होती थी।
चल दिये सर पे अपनी जिम्मेदारियों का बोझा,
नाप दी सैकड़ो किलोमीटर की सड़कें यही सोच के।
जिस शहर के लिए हम भाग आए थे गाँव से लड़कर,
किस मुँह से उसके सामने होंगे और कैसे होंगे सोझा।
भूखे बच्चे का मुँह देख अपनी भूख मार लेते है,
दूसरों को खिलाने वाले हाथ आज रोटी उधार लेते है।
सोच सोच के यही दिल बैठ जाता है चलते चलते,
हम मज़दूर ही सबका बोझ क्यों उठा लेते है।
लेकिन वो कहते है न कि गाँव गाँव ही होता है,
सड़के भले बदल जाये मेढ़ मेढ़ ही होता है।
गुर और लोटा का पानी लिए अपने हाथों मे,
दूर से ही मोहना हमको देख फ़ूट फुट के रोता है।
भूल गए थे पीपल का पेड़ और वो नदी का किनारा,
जिस छाव मे बैठ, नदी की मिट्टी से बनाते थे मिनारा।
हम आये थे उससे मुँह मोड़ ढूढ़ने कोई नया सहारा
नही पता था कि आख़िर मे बनेगा वही सबका सहारा।
अब बैठे है उसी पुराने पीपल के नीचे सारे दोस्त यार,
जिस से लड़के शहर गए थे वही हाथ पकड़ कहता है।
कुच्छो नही हुआ है , अब दिल हल्का कर ले यार,
रोती आँखों का पानी कहता है ,गाँव गाँव ही होता है।
” राजेश मिश्रा”