मजबूर नीतीश ने बेमन बनाई थी बिहार में सरकार, ये तो होना ही था
“दैनिक हिंदुस्तान” ग्रेटर नोएडा ब्यूरो चीफ पंकज पाराशर के फेसबुक वॉल से साभार —
मैंने 16 दिन पहले 10 जुलाई को अपनी फेसबुक वाॅल पर लिखा था कि बिहार में बहार है का नारा देने वाली जोड़ी क्या टूटने के कगार पर है। दरअसल, थोड़ी सी राजनीतिक समझ रखने वाले यह तो जानते ही हैं कि दो ध्रुवीय विचारधाराओं वाले नीतीष कुमार और लालू प्रसाद यादव सरकार चला रहे हैं। लिहाजा, इस सरकार की उल्टी गिनती तो नीतीष कुमार के शपथ ग्रहण समारोह से ही शुरू हो चुकी थी।
जब 22 फरवरी 2015 को नीतीश कुमार तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे तो सबसे महत्वपूर्ण घटना वहीं देखने को मिली थी। एक, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बेटे निशांत कुमार कहीं पीछे एकांत में बैठे थे। उन्हें कैमरों को तलाश करने में आधा वक्त बीत गया था। दूसरे, लालू प्रसाद, राबड़ी देवी मंचासीन और उनके बेटे-बेटी थे। उनके बेटे तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री और दूसरे बेटे तेज प्रताप यादव कैबीनेट मंत्री बने। कुछ दिन बाद ही बेटी एमएलसी बन गईं।
राजद में ही बड़े पद पर काम कर रहे मेरे घनिष्ठ मित्र से मैंने उसी दिन फोन करके पूछा, भाई चुनाव तो लड़ लिए हो, जीत भी गए हो, सरकार भी बना लिए हो, क्या सरकार चला पाओगे। मित्र ने जो जवाब दिया वह बड़ा था। बोले, हम तो चला पाएंगे, क्या वो चला पाएंगे, बात ये बड़ी है। उनका मतलब कुछ दिन बाद ही समझ आने लगा था।
दरअसल, नीतीश कुमार ने राजनीतिक हठ के चलते राजग से नाता तोड़ लिया था। वह मोदी के नाम पर बैर ठान कर बैठ गए थे। उन्हें लगा था कि लालू यादव की पार्टी से सहयोग लेकर वह सरकार बना लेंगे। लेकिन चुनाव परिणाम आया तो लालू की राजद को जदयू से ज्यादा सीट मिल गईं। अब नीतीश कुमार भले ही सीएम बने लेकिन हकीकत में वह राजद से सहयोग लेकर नहीं उन्हें सहयोग देकर सरकार चला रहे थे।
राजद सबसे बड़ी पार्टी और सरकार में बड़ा हिस्सा बनी तो लालू यादव और उनके परिवार ने बड़ा हासिल करने में जी जान लगा दी। नीतीष कुमार अपने मंत्रियों, विधायकों, नेताओं और कार्यकर्ताओं को ईमानदारी का पाठ पढ़ाने में लगे रहे। दूसरी ओर तेजस्वी यादव पर लगे आरोपों से हकीकत सामने आ गई। बिहार में हालात ऐसे बने कि जदयू के मंत्री और नेता अपने कार्यकर्ताओं के जो काम नहीं कर पाते थे, वे काम राजद के मंत्री और नेता कर रहे थे।
ऐसे में नीतीश कुमार पर एक ओर बिहार में भ्रष्टाचार, अपराध और कुशासन की वापसी का कलंक लग रहा था तो दूसरी ओर अपनी पार्टी कमजोर होने लगी थी। ऐसे में उन्हें लगने लगा कि इनसे कहीं ज्यादा अच्छे तो भाजपा के साथ थे। ऊपर से भाजपा से बैर का मतलब प्रदेश की आर्थिक बदहाली है।
कुल मिलाकर रहीम का एक दोहा याद आता है,
कहत कबीर कैसे निबहु, बैर, कैर को संग।
वो डोलत रस आपनौ, उनके फाटत अंग।।
पंकज पाराशर के फेसबुक वॉल से साभार

पंकज पराशर हिंदुस्तान टाइम्स में उप संपादक के पद पर कार्यरत हैं। वरिष्ठ पत्रकार पंकज पराशर को पत्रकारिका के क्षेत्र में कई पुरस्कार मिल चुका है। पत्रिकारिता के अलावा उनकी रूचि कुछ नया खोजने और करने में हमेशा से रही है। इसी के तहत उन्होंने ग्रेटर नोएडा क्षेत्र की ऐसी कहानी जो “हिन्दू-मुस्लिम एकता” की मिसाल पेश करता है, उसपर आधारित एक डाक्यूमेंट्री फिल्म “द ब्रदरहुड ” का फिल्मांकन किया है जो जल्द रिलीज़ होने वाली है।